हम – अहाँ
गजल
चालनि
मे नित पानि भरै छी हम – अहाँ ।
कतेक
बरख सँ संग रहै छी हम - अहाँ ।।
अपन
अपन दुनिञा मे हम सभ हेरा गेलहुँ
एक
दोसर केँ कहाँ चिन्है छी हम - अहाँ ।
कते
जतन सँ सींचै छी नवगछुली केँ
सभ
दिन सपना नव देखै छी हम - अहाँ ।
भिनसर, दुपहर, साँझ, राति केर नाटक ई
हँसि
कऽ कानी, कानि हँसै छी हम – अहाँ ।
माथक
मोटा हल्लुक कहियो भेल कहाँ
रोज
मरै छी, रोज जिबै छी हम - अहाँ ।
काल्हुक
दिन होयत शुभ दिन हमरो सभ ले’
यैह
सोचि सभ राति सुतै छी हम – अहाँ ।
नोर
आँखि केर, एक दोसरक पोछब हम
चलू
आइ संकल्प करै छी हम – अहाँ ।
“विदेह” – अंक ९७ – ०१ जनवरी
२०१२ - मे प्रकाशित ।
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