ओ बुझैत छथि पागल छी
गीत गजल मे लागल छी,
ओ बुझैत छथि पागल छी ।
हम राति केँ राति कहै छी,
तेँ भरि गाम सँ बारल छी ।
अहाँ बाढ़िए सँ तबाह छी,
हम रौदी केर मारल छी ।
हम स्वयं केँ नहि चिन्हलौं,
देखू केहेन अभागल छी ।
अहाँ कहै छी कविता सूनू,
हम यात्राक झमारल छी ।
एहि खेला केर यैह नियम छै,
सब जीतल आ हारल छी ।
पाइ प्रतिष्ठा पद नै चाही,
प्रेमक हम पियासल छी ।
“विदेह” पाक्षिक इ पत्रिका वर्ष ५, मास ५०, अंक ९९ मे छपल ।
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